हजरत यूसुफ अलेहिस्सलाम और जुलेखा का किस्सा बहुत मशहूर है लेकिन इससे पहले अगर आपने इसका पहला भाग हजरत यूसुफ अलेहिस्सलाम नहीं पड़ा तो यहां पर क्लिक करें।
नौजवान यूसुफ़ अलेहिस्सलाम
हज़रत यूसुफ़ जवानी को पहुँचे तो अल्लाह तआला ने उनको इल्म, हिकमत, सब्र, तहम्मुल और पाकबाज़ी वग़ैरह हरेक ख़ूबी अता की। जुलैखा हज़रत यूसुफ़ के हुस्न व जमाल पर फ़िदा थी। हज़रत यूसुफ़ को जब इसका अंदाज़ा हुआ तो उससे किनाराकशी इख़्तियार करते रहे। यूं जुलैख़ा ख़ुद भी निहायत हसीन - जमील थी।
एक बार दाई ने जुलैख़ा से उसकी ख़ैरियत पूछी तो उसने अपनी आजिज़ी, परेशानी और यूसुफ़ की बेपरवाही का ज़िक्र किया। उसने निहायत हैरत से कहा- 'तमाम शहर तुझे एक झलक देखने की आरज़ू रखता है और यूसुफ़ तुझसे किनाराकशी इख़्तियार करता है।'
जुलैख़ा एक रोज़ एक ख़ास महल में तख़्त पर बैठी। महल में तमाम ऐशो-आराम के सामान मुहैया थे। उसने यूसुफ़ को किसी बहाने से तलब किया और यूसुफ़ की तरफ़ निहायत बेक़रारी से बढ़ी। हज़रत यूसुफ़ ने कहा-
अज़ीज़े मिस्र मेरा सरपरस्त और मोहसिन है। मुझसे यह ख़यानत नहीं हो सकती- ज़ुलैख़ा ने कोई उज़्र न सुना और साफ़ तौर पर अपना इश्क़ जताने लगी और कहा -
'अगर तू मेरी आरज़ू पूरी करेगा तो मैं अपने तमाम सामान और ज़रो-जवाहरात ख़ैरात कर दूंगा ताकि तेरे गुनाह का कफ़्फ़ारा हो सके। ख़ुदा तेरा गुनाह माफ़ कर देगा ।'
यह बहस-मुबाहसा चलता रहा। जुलैख़ा ने तो यूसुफ़ का इरादा कर ही लिया था, हज़रत यूसुफ़ के दिल में भी ज़ुलैख़ा के लिए कुछ ख़्याल पैदा हुआ, लेकिन जिसकी हिफ़ाज़त ख़ुदा करे उस पर नफ़्स और शैतान का ग़लबा नहीं हो सकता ।
हज़रत यूसुफ़ ख़ुदाई बुरहान और दलील की वजह से बुराई से बचे रहे और जुलैखा से हाथ छुड़ाकर कमरे से भाग लिए। ज़ुलैखा बेताबाना पीछे दौड़ी और यूसुफ़ की क़मीज़ पीछे से पकड़ कर खींचा। क़मीज़ पीछे से फट गई और हज़रत यूसुफ़ दरवाज़े से बाहर निकल गए। पीछे-पीछे जुलैखा भी बाहर आई। बाहर निकलते ही देखा कि अज़ीज़े
मिस्र सामने खड़ा है।
हज़रत यूसुफ़ तो ख़ामोश रहे, लेकिन जुलैखा ने अपनी ख़िफ़्फ़त मिटाने के लिए कहा-
'उस शख़्स की क्या सज़ा है जो तेरे घर से बुराई का इरादा करे?'
'ऐसे शख़्स को क्या सज़ा मिलनी चाहिए ?'
हज़रत यूसुफ़ ने कहा, “मैं बेगुनाह हूँ। इसी ने मुझ पर डोरे डालने चाहे। इस मौक़े पर ख़ुदा का ख़ास करम हुआ।" एक बच्चे ने हज़रत यूसुफ़ की सच्चाई और पाकबाज़ी की गवाही दी। उस बच्चे ने कहा-
"अगर क़मीज़ पीछे से फटी है तो जुलैख़ा झूठी और यूसुफ़ सच्चे हैं और अगर क़मीज़ सामने से फटी है तो ज़ुलैख़ा सच्ची और यूसुफ़ झूठे हैं।”
देखा गया तो क़मीज़ पीछे से फटी थी। इस तरह हज़रत यूसुफ़ की परहेज़गारी और ज़ुलैख़ा का कुसूर ज़ाहिर हुआ। अज़ीज़ मिस्र ने हज़रत यूसुफ़ से कहा कि-
'वह दरगुज़र से काम ले।'
उसने पसंद न किया कि लोगों में यह वाक़िआ मशहूर हो।
अज़ीज़े मिस्र ने ज़ुलैख़ा से कहा, 'तू अपने गुनाहों की माफ़ी मांग।'
कोशिश के बावजूद बात छिप न सकी। सही है, इश्क़ और मुश्क छिपे नहीं रह सकते ।
मिस्र की औरतों ज़ुलैख़ा को ताने देने लगीं और कहने लगीं-
'उसे क्या हो गया है जो अपने ग़ुलाम से इश्क़ करती है और गुलाम है कि उसे ख़ातिर में भी नहीं लाता।'
जब जुलैख़ा को यह ख़बर हुई तो उसने एक महफ़िल सजाई और शहर की औरतों और ख़ासतौर पर हुक्काम की बेटियों को दावत दी।
महफ़िल में सब औरतें शरीक हुईं। इस मौक़े पर जुलैख़ा ने किसी बहाने से हज़रत यूसुफ़ को बुलाया। जब औरतों की निगाह हज़रत यूसुफ़ पर पड़ी तो हैरान और शशदर रह गयीं, और उनके मुंह से निकला-
माहाज़ा बशर. इन्न हाज़ा इल्लाह मलकुन करीम.
'अरे यह तो इंसान नहीं, यह तो फ़रिश्ता है भला ।'
जुलैखा ने कहा, 'यह है इसकी मुहब्बत जिसका तुम मुझे ताना दिया करती हो।'
जुलैख़ा ने कहा, 'हमने इस पर डोरे डाले थे। यह अगर मेरी बात न मानेगा तो लाज़मन क़ैद में पड़ेगा।'
सारी औरतें अपने घरों को वापस हो गयीं। मगर दो औरतें जो बड़ी ज़बान थीं रूकी रहीं। उनका इरादा था कि यूसुफ़ को राह पर लाकर रहेंगी।
उन्हें ज़बानी और मीठी बातों पर बड़ा भरोसा था। वे इस बात को नहीं जानती थीं कि यूसुफ़ वह पाकबाज़ शहबाज़ हैं जो हवा और हवस के जाल में नहीं फंस सकता ।
एक ने जाकर यूसुफ़ से कहा, 'तू ज़ुलैखा की बात क्यों नहीं मनता। तू अगर आफ़ताब है तो वह किसी चांद से कम नहीं। तेरी भलाई इसी में है कि ज़ुलैख़ा को नाउम्मीद न कर ।'
हज़रत यूसुफ़ ने कुछ ऐसी नसीहत फरमाई कि वह औरत हैरान और ख़ामोश होकर वापस आ गई। इसके बाद दूसरी औरत ने जाकर हज़रत यूसुफ़ से कहा- 'अगर तूने ज़ुलैख़ा की आरज़ू पूरी न की और अपनी हठ पर क़ायम रहा तो जल्द ही क़ैदख़ाने में डाल दिया जाएगा।'
हज़रत यूसुफ़ पर इस डराने-धमकाने का कुछ भी असर न हुआ। ये औरतें भी नाकाम वापस हो गयीं। इन तमाम बातों से हज़रत यूसुफ़ ने तंग आकर जनाबे इलाही में फ़रयाद की, "ख़ुदावंद, जिस चीज़ की तरफ़ ये औरतें मुझे बुलाती हैं उससे अच्छा तो मेरे लिए क़ैदख़ाना ही होगा। इस गुलिस्तान से बेहतर तन्हाई है।"
दोनों औरतें जिन्हें ख़ुद भी हज़रत यूसुफ़ से मुहब्बत हो गई थी जुलैख़ा के पास गयीं और कहा- 'यूसुफ़ को चन्द रोज़ के लिए क़ैदखाने में भिजवा दो। इस तरह मुम्किन है कि वह इस ऐशो-आराम और साजो-सामान की क़द्र जाने और क़ैदखाने की वहशत में उसे तेरी क़द्र मालूम हो।
जुलैख़ा को यह बात पसंद आई। उसने अज़ीज़े मिस्र से कहा- 'इस इबरानी गुलाम ने मुझे तमाम ख़ल्क़ में रुस्वा किया। इसे लाज़मन क़ैदखाने में भेज दो ताकि लोग यह जानें कि मेरा दामन इस गुनाह से पाक है और कुसूर अगर है तो ग़ुलाम का।'
अज़ीज़ ने अपने तमाम लोगों से मश्विरा किया। सब ने ज़ुलैख़ा की राय से इत्तिफ़ाक़ किया। इस तरह हज़रत यूसुफ़ महल से कैदखाने पहुँचे। हज़रत यूसुफ़ को बड़ी ख़ुशी हुई, इसलिए कि अब वह फ़रेब और फ़िने से बिल्कुल महफ़ूज़ थे।
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