क़ैद में हजरत यूसुफ़ और बादशाह का ख़्वाब | Hazrat Yusuf Alehisslam : Part 3

हजरत यूसुफ अलैहिस्सलाम के किस्से का यह तीसरा भाग है अगर आपने पिछले दो भाग नहीं पड़े तो जरुर पढ़े

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क़ैद में हजरत यूसुफ़ अलेहिस्लाम 

हज़रत यूसुफ़ के कैदखाने में आने से दूसरे कैदियों की जान में जान आयी और वे ख़ुशी से नाच उठे। हज़रत यूसुफ़ को एक ख़ास कमरे में क़ैद रखा गया। हज़रत यूसुफ़ जब इबादत से फ़ारिग़ होते थे तब क़ैदियों से उनका हाल पूछते और उन्हें तसल्ली देते और उन्हें दीन और ईमान की अच्छी- अच्छी बातें सुनाते क़ैदी उनकी सोहबत से बहुत ख़ुश रहते कि क़ैदखाने की मुसीबत तक को भूल जाते। हज़रत यूसुफ़ एक लम्बे अरसे तक कैदखाने में रहे। जब अल्लाह ने उन्हें क़ैद से निकालना चाहा तो ग़ैब से इसके अस्बाब मुहैया हो गये। कहते हैं कि बादशाह रूम ने अपना एक एलची मिस्र भेजा और उसे माल और जवाहरात और थोड़ा सा ज़हर दिया था ताकि वह मिस्र के बादशाह के किसी मुसाहिब को माल देकर इस बात पर आमादा करे कि बादाशह को किसी बहाने से ज़हर खिलाकर हलाक कर दे।

वह एलची मिस्र पहुँचा और बादशाह के ख़ास बावरची और शराबदार को अपना दोस्त बनाया और बड़े राज़दाराना अन्दाज़ में उससे अपना मक़सद बयान किया ।
शराबदार ने तो साफ़ इंकार कर दिया कि वह किसी क़ीमत पर भी बादशाह को ज़हर नहीं दे सकता, लेकिन शाही बावरची दौलत के लालच से सही रास्ते से फिर गया और बादशाह को ज़हर देने का वादा कर लिया । अभी बादशाह को वह ज़हर दे नहीं सका था कि किसी तह इस साज़िश का राज़ खुल गया और बादशाह को यह मालूम हुआ कि शराबदार और शाही बावरची उसे ज़हर देने की स्कीम में शरीक थे लेकिन इन दोनों में से किसी ख़ास शख़्स पर गुनाह साबित नहीं होता था, इसलिए बादशाह ने दोनों को
क़ैदख़ाने में भेज दिया ।

यह दोनों क़ैदी जब जेलख़ाने पहुँचे और वहाँ हज़रत यूसुफ़ की हमनशीनी और सोहबत उन्हें हासिल हुई तो वे बादशाह की मुसाहबत भूल गए और हज़रत यूसुफ़ ही की ख़िदमत में रहने लगे। एक रोज़ इन दोनों ने सोचा कि यूसुफ़ हरेक क़ैदी को ख़ुशख़बरी देता है और हरेक के ख़्वाब की ताबीर करता है और हरेक की उलझनों को दूर करता है। हमें भी आज़माना चाहिए।

फिर वे दोनों हज़रत यूसुफ़ की ख़िदमत में पहुँचे और एक ने कहा, 'मैंने ख़्वाब देखा है कि मैं बादशाह के लिए अंगूर निचोड़ रहा हूँ।'
दूसरे ने कहा : 'मैंने ख़्वाब देखा है कि मेरे सर पर रोटियों का ख़्वान है और चिडियां पंजे मारकर खा रही हैं।
उन दोनों ने कहा, 'ऐ यूसुफ़, हम तुम्हें नेक र्मद समझते हैं। तुम हमारे ख्वाब की ताबीर बताओ।'
हज़रत यूसुफ़ ने कहा, "जो खाना तुम्हे मिलता है, उस खाने के आने से पहले मैं तुम्हारे ख़्वाब की ताबीर कर दूंगा। यह उन बातों में से है जो मेरे परवरदिगार ने मुझे सिखाई हैं। मैंने उन लोगों का रास्ता छोड़ दिया है जो अल्लाह को नहीं मानते और आख़िरत का इंकार करते हैं। मैंने अपने बाप-दादा इब्राहीम और इस्हाक़ और याकूब का रास्ता इख़्तियार किया है।


हमारे लिए यह सही नहीं हो सकता कि किसी चीज़ को ख़ुदा का शरीक ठहरायें। यह ख़ुदा का फ़ज़्ल है हम पर भी और लोगों पर भी। लेकिन अक्सर लोग शुक्रगुज़ार नहीं होते। ऐ क़ैदखाने के मेरे दोनों साथियों, क्या कई आक़ा अच्छे हैं या एक ख़ुदा-ए-ग़ालिब ! तुम उसके सिवा जिनकी भी पूजा करते हो वह तो सिर्फ़ नाम ही नाम हैं जो तुमने और तुम्हारे बाप-दादा ने रख लिए हैं। अल्लाह ने उनकी कोई सनद नहीं उतारी है। हुक्म तो बस अल्लाह ही का है। उसका हुक्म है कि उसके सिवा किसी की बन्दगी न करो। यही सही और सीधा दीन है। लेकिन अक्सर लोग जानते नहीं।"

इसके बाद हज़रत यूसुफ़ ने कहा : “ऐ क़ैदखाने के मेरे साथियों ! तुम्हारे ख़्वाब की ताबीर यह है कि तीन दिन के बाद साक़ी और शराबदार क़ैद से छुटकारा पाकर फिर अपने ओहदे पर पहुँच जाएगा और शाही बावरची को तीन दिन के बाद यहां से निकाल कर सूली पर चढ़ा दिया जायेगा और चिड़ियां उसके सर-मग्ज़ खायेंगी।'
हज़रत यूसुफ़ ने कहा :
"हो चुका वह जिसके बारे में तुम पूछते थे।”
फिर साक़ी से कहा, “जब तू दोबारा अपने ओहदे पर पहुँचे और बादशाह की क़ुरबत तुझे हासिल हो तो मुनासिब मौक़ा देखकर बादशाह से कहना कि एक इब्रानी गुलाम क़ैदखाने में पड़ा है और दुनिया के आराम और फ़ायदों से महरूम और मायूस है।"

साक़ी ने हज़रत यूसुफ़ से वादा किया कि वह ज़रूर बादशाह सलामत से इसका ज़िक्र करेगा।
तीन दिन के बाद जो बात पूरी हो चुकी थी वह ज़हूर में आई। एक को सूली पर लटका दिया गया और साक़ी को उसका ओहदा दोबारा अता हुआ। लेकिन वह यह भूल ही गया कि बादशाह से हज़रत यूसुफ़ का ज़िक्र करे ।
इस तरह हज़रत यूसुफ़ और भी चंद साल तक क़ैद में रहे।

हज़रत यूसुफ़ अलै. की रिहाई

जब ख़ुदा को मंजूर हुआ कि हज़रत यूसुफ़ को क़ैद से रिहाई मिले तो इसका सामान इस तरह किया गया कि बादशाह मिस्र ने एक अजीब व ग़रीब ख़्वाब देखा। उसने देखा कि सात मोटी-ताज़ी गायें दरिया-ए-नील से बाहर
निकलीं, जिनके पीछे सात गायें और भी निकली लेकिन वह निहायत दुबली-पतली थीं।
बादशाह ने देखा कि दुबली गाय ने उन मोटी गायों को निगल लिया लेकिन इसके बावजूद उनके पेट पिचके ही रहे। वह दुबली ही रहीं, इसलिए कि उनकी भूख बहुत ज़्यादा थी। इसके अलावा बादशाह ने सात दानेदार बालियां देखीं जो सब्ज़ और हरी-भरी थीं। इसके साथ उसने सात बालियां सूखी हुई और ख़ुश्क देखीं ।

बादशाह ने देखा कि ख़ुश्क बालियां सब्ज़ बालियों से लिपट गयीं, यहां तक कि सब्ज़ बालियों की सब्ज़ी बाक़ी न रही। बादशाह जागा तो बहुत फ़िक्रमंद और ग़मगीन हुआ। तमाम जादूगरों और काहिनों को बुलाया और उसने अपने ख़्वाब की ताबीर पूछी। कोई भी ख़्वाब की ताबीर न कर सका। सबने कहा, "यह तो ख़्वाबे-परेशां है। ये तो उड़ते सपने हैं। ऐसे ख़्वाबों की ताबीर हम नहीं करते।"

अचानक साक़ी को यूसुफ़ की याद आयी। उसे याद आया कि कभी उसने भी ख़्वाब देखा था जिसकी कितनी सच्ची ताबीर यूसुफ़ ने बयान की थी। उसे ख़्याल आया कि उसने यूसुफ़ से कुछ वादा भी किया था।
साक़ी ने बादशाह से कहा, 'इन लोगों की बातें बेकार और लायानी हैं। आपके ख़्वाब बेशक सच्चे हैं और यक़ीनन इनकी कोई ताबीर भी है। फिर उसने अपना सारा क़िस्सा बादशाह से बयान किया कि उसने किस तरह क़ैद ख़ाने में ख़्वाब देखा था जिसकी सही ताबीर यूसुफ़ ने बयान की थी।

बादशाह ने कहा, "यूसुफ़ कौन है, उसके हालात बयान करो?"
साक़ी ने कहा, "जहांपनाह, मैं ज़्यादा तो नहीं जानता मगर इतना समझता हूँ कि वह करीमज़ादा है और इब्राहीम की औलाद में से है। उसे सूरत भी मिली है और सीरत भी। अज़ीज़ ने अपनी औरत के कहने से क़ैद कर रखा है।'
साक़ी से बादशाह ने कहा, "कैदखाने जाओ और पहले ख़्वाब की ताबीर मालूम करो। "

साक़ी क़ैदख़ाने पहुँचा और कहा : 'बादशाह ने एक अज़ीब-व-ग़रीब देखा है। तुम उसकी ताबीर बयान करो ताकि बादशाह तुम्हारा रुत्बे व क़ीमत को समझ जाए और तुम्हें क़ैद से रिहाई भी हासिल हो। '

फिर उसने बादशाह का ख़्वाब हज़रत यूसुफ़ से बयान किया। हज़रत यूसुफ़ ने अपनी इल्हामी जुबान से फ़रमाया :
“सात मोटी गायों और सात सब्ज़ बालियों से मुराद सात ऐसे बरस हैं जिनमें मुल्क में बड़ी ख़ुशहाली आएगी, बारिश होगी, खेती को तरक़्क़ी होगी, लोग आसूदा और ख़ुशहाल हो जायेंगे और सात दुबली गार्यो और सात सूखी बालियों से मुराद ऐसे सात साल हैं जो उन सात बरसों के बाद आयेंगे और इन सालों में सख़्त क़हत पड़ेगा। लोग फ़ाक़ों से दो-चार होंगे। लोगों की खेतियां तबाह होंगी और उनका जीना दूभर हो जाएगा। 


 “फिर आपने मुश्किल दिनों से निबटने की तदबीर भी बतायी। आपने कहा कि लोग सात अच्छे सालों में मेहनत से खेती करें और ज़रूरत के मुताबिक़ किफ़ायत से ख़र्च करें। अनाज को बालियों समेत क़हत के दिनों के लिए भी बचा रखें। क़हत का ज़माना गुज़रने के बाद फिर दिन फिरेंगे, बारिश होगी और लोग आसूदा और ख़ुशहाल हो जायेंगे ।
 
साक़ी ने जब क़ैदख़ाने से लौटकर बादशाह से उसके ख़्वाब की ताबीर बयान की तो बादशाह को यक़ीन हो गया कि यह उसके ख़्वाब की सच्ची ताबीर है और काहिनों और नजूमियों की बातें सरासर ग़लत हैं।

बादशाह ने हुक्म दिया,
"यूसुफ़ को क़ैद से रिहा किया जाएगा।
वह यूसुफ़ से मिलने का बड़ा मुश्ताक़ हुआ। साक़ी ने क़ैदख़ाने में यूसुफ़ से कहा- 'बादशाह ने तुम्हारी रिहाई का हुक्म दे दिया है। वह तुमसे मिलने का बेहद आरजूमंद है। अब तुम मेरे साथ बादशाह की बारगाह में चलो और तमाम फ़िक्र व रंज को बिल्कुल भुला दो ।'
हज़रत यूसुफ़ ने कहा, 'ऐसा न होगा। तुम फिर बादशाह के पास जाओ और कहो-
"उन औरतों का क्या हाल है जिन्होंने अपने हाथ काटे थे यानी जो महफ़िल में बेदस्त और बेतदबीर होकर रह गयी थीं?'
जब बादशाह तक हज़रत यूसुफ़ का यह पैग़ाम पहुँचा तो वह बहुत हैरान हुआ और साक़ी से इसके बारे में जानना चाहा ।

साक़ी ने कहा, "गुलाम इब्रानी है। वह निहायत हसीन और जमील है। अज़ीज़े मिस्र ने उसे ख़रीदा है।"
फिर साक़ी ने हज़रत यूसुफ़ के क़ैद होने और महफ़िल में शशदर होने का तमाम क़िस्सा बयान किया ।
बादशाह ने जेलर को बुलाकर हज़रत यूसुफ़ के क़ैद होने की रूदाद पूछी। उसने कहा-
"यूसुफ़ को अज़ीज़े मिस्र ने क़ैद किया है। यूसुफ़ का हाल यह है कि वह रोज़े से रहता है और शाम को बहुत थोड़ा खाता है और अपना खाना ज़रूरतमंदों और मुहताजों को दे देता है।'


फिर बादशाह ने अज़ीज़े मिस्र को बुलाया और हज़रत यूसुफ़ के बारे में पूछा। उसने कहा, “मैंने इस गुलाम को ख़रीद कर अपना बेटा बना लिया था, लेकिन उससे बड़ी ख़ियानत हुई है, इसलिए उसे क़ैद की सजा दी गई
है।"
बादशाह ने फिर साक़ी को भेजा और यूसुफ़ को बुलाया, लेकिन उन्होंने फिर इनकार कर दिया और कहा-
“मैं तो उसी वक़्त बाहर आ सकता हूँ, जबकि उन औरतों से मेरा हाल पूछा जाए और अज़ीज़े मिस्र को भी सही हक़ीक़त मालूम हो जाए और उसका शुबहा दूर हो।”

बादशाह निहायत हैरान हुआ। उसने उन औरतों को हाज़िर कराया जो जुलैखा की मज्लिस में शरीक हुई थीं। उसने उनसे यूसुफ़ और ज़ुलैख़ा का हाल पूछा। वे बोलीं, “ख़ुदा की पनाह । हमने तो यूसुफ़ में कोई बुराई नहीं देखी।"
फिर जुलैख़ा को भी तलब किया गया। उसने कहा-

"अब जब बात यहां तक पहुँच गयी है तो मैं सच्ची बात नहीं
छिपाऊंगी। हक़ीक़त यह है कि मैंने ही यूसुफ़ को अपनी तरफ़ माइल करना चाहा था। कुसूर मेरा है। वह अपने किरदार का सच्चा है।"

इस तहक़ीक़ात के बाद हज़रत यूसुफ़ ने फ़रमाया- 'तहक़ीक़ कराने से मेरी ग़रज़ सिर्फ़ यह थी कि मेरी बेगुनाही ज़ाहिर हो जाए और अज़ीज़ मिस्र भी जान ले कि मैंने उसकी अमानत में कोई खियानत नहीं की। जब मामला रौशन हो गया और हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम की
पाकबाज़ी सूरज की तरह ज़ाहिर हो गयी और उनको बादशाह की रिहाई का पैग़ाम पहुँचा तो उन्होंने क़ैदियों को दुआए-ख़ैर दी और कैदखाने से बाहर आए और क़ैदखाने के दरवाज़े पर लिखा, जिसका अरबी तर्जुमा यह है-
'हाज़ा अख़बरुल अहयाए व बैतुल अहज़ाने व समातुल आदाए'
(यह क़ब्र है ज़िंदों की और घर है ग़मों का और घर है दुश्मनों के ख़ुश होने का ।)


इसके बाद गुस्ल किया और लिबास बदले और बादशाह के ख़ास घोड़े पर सवार होकर दरबार में पहुँचे ।
जब आप पर बादशाह की और अरकाने-दौलत की नज़र पड़ी तो सब बे-इख़्तियार होकर बोल पड़े-
'यह मुकर्रम रूह है या मुजस्सम फ़रिश्ता या इन्सान ? ऐसा शख़्स तो न किसी ने देखा होगा, न सुना होगा।'
बादशाह ने आपको एक अच्छे और मुनासिब मकान में ठहराया और गुफ़्तगू की। बादशाह ने आपको हर तरह की ख़ूबियों और कमालों से आरास्ता पाया। फिर कहा, 'मेरे ख़्वाब की ताबीर मेरे सामने बयान करो।'

आपने बादशाह के ख़्वाब की ताबीर बादशाह के सामने बयान की। बादशाह ने कहा, 'अगर्चे मेरा ख़्वाब अजीबो-ग़रीब है लेकिन तुम्हारी ताबीर अजीबतर है । '
अब यह बताओ, 'क़हतसाली की मुसीबत से रियाया को कैसे बचाया जाए ? '

हज़रत यूसुफ़ ने फ़रमाया, 'मुल्क के तमाम हाकिमों को हुक्म दो कि वह मिस्र के तमाम किसानों को ताकीद करें कि वे खेती के काम में हरगिज़ सुस्ती न करें और अपनी पैदावार में से ग़ल्ला बालियों के साथ क़हत के ज़माने के लिए जमा करें। ग़ल्ला काम में बस उतना ही लाएँ, जितने की कम से कम ज़रूरत हो।' बादशाह फ़िक्रमंद हुआ। इस मुश्किल काम की निगरानी की ज़िम्मेदारी किसको सौंपी जाए, वह कौन शख़्स हो सकता है जो इस अज़ीम मंसूबे को अंजाम दे सके।"

हज़रत यूसुफ़ ने फ़रमाया, फ़िक्रमंद न हों। यह काम मेरे सुपुर्द कीजिए। मैं निगरां हूँ, ज़िम्मेदारी को पूरी तरह अंजाम दूंगा ।' बादशाह ने ख़ुशी से यह तज्वीज़ क़बूल कर ली और हज़रत यूसुफ़ को मुल्क के तमाम ख़ज़ानों और ज़राय-वसायल पर क़ब्ज़ा दे दिया। अज़ीज़े मिस्र के मरने के बाद हज़रत यूसुफ़ मुख्तारे-कुल हो गये।
हज़रत यूसुफ़ ने एक लम्बा-चौड़ा मकान ऐसा तलाश किया जिसकी ज़मीन में नमी नहीं थी और जिसकी हवा भी मुनासिब थी ।

एक इमारत बहुत ही ऊंची और चौड़ी तामीर कराई। अमीन मुक़र्रर किए गए। महसूल सात बरस तक जमा किया गया।
वक़्त के गुज़रते देर नहीं लगती, ख़ुशहाली के सात साल गुज़र गए। तंगी का ज़माना आया। हज़रत यूसुफ़ पेट भर खाना न खाते थे, ताकि भूखे लोगों की याद बाक़ी रहे ।
क़हत की आग ऐसी फैली कि क्या अमीर क्या ग़रीब, सब दुबले और लाग़र हो गए।

लोगों के ज़ेवर और बर्तन तक बिक गए। लोगों ने अपने गुलाम और जानवर तक बेच डाले । कितनों की ज़मीन और हवेलियां तक बिक गयीं। हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम रियाया की जानें बचाने की पूरी फ़िक्र करते रहे ।
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